Friday 18 December 2015

अखबार के मारे हैं हम भाग 2

खबर लाती सुनते हो वो मास्टरनी है पिछली कोठी की किरायेदारिन उसके घर में से एक लड़की मिली है ,कह रही थी मेरी बहन की लड़की है ,पर सुनते हैं कल चार आदती उसे छोड़ गये थे। अब इनमें ऐसी कौन सी बात है जिसे सुनकर हम में रस संचार हो यह बात तो आम दिन की बातें हैं पर उनके लिये यही रस भीनी जलेबियां है। हो गया न हमारी गरम गरम चाय का सत्यनाश। इसलिये जनाब हमने अपनी श्रीमती जी को सलाह दी कि वे दिन भर इधर उधर की बातों में घूमती हैं इससे अच्छा है कि अखबार पढ़ा करें। साथ ही सलाह दी एक दो पत्रिकाएं भी मंगाऐं जिससे थोड़ी जनरल नाॅलेज बढ़ेगी, छोटे से मुहल्ले से निकल कर विश्व की सभी हलचलों में दखल दें।



हमारी इस सलाह का असर करीब एक महीने बाद से दिखाई दिया। हम आश्चर्य से ठगे से अब रोज क्या देखते हैं हमारे पास अखबार पीछे आता है, पहले वे उसे एक बार पलट कर अवश्य देख लेती है। कभी एक दिन हम अच्छी तरह से अखबार न पढ़ सकें और दूसरे दिन उसका तकाजा करें तो उसका कभी एक कोना गायब है ,तो कभी दूसरा कोना गायब। हम सोचते थे शायद अब अखबार पढ़ने का शौक लग गया है इसलिये जो खबर अच्छी लगी या कोई आर्टीकल अच्छा लगा उसे काट लेती होंगीं।



परन्तु कभी कभी हमें लगता अखबार  में खबरें ही खगरें हैं क्या उठा पटक है, पर उनके मरे इस निगोड़े अखबार में क्या आया है ,कुछ भी तो नहीं आया है ? पता नहीं क्या चाटे जा रहे हो, लो कर लो बात यहां तो कांग्रेस की गद्दी पर संकट छाया हुआ है। कुर्सी की छीना झपटी है , सारा देश सूली  पर टंगा है। अखबार है भूचाल और उनके लिये कुछ उसमें है ही नहीं। हम कहते जी तुम्हारे लिये मरने जीने की खबरें ही खबरें होती है पर बाबा तुम कुछ पढ़ा करो।



कुछ दिन बाद ही जासूसी करने का मालूम हुआ कि यह अखबार क्या रंग ला रहा है ? आये दिन कभी कोई अखबार आता कभी कोई। कभी पैट्रियट , कभी हिन्दुस्तान टाइम्स कभी नव भारत टाइम्स। हम उलझन में ये अखबार वाले को हो क्या गया है, जो रोज रोज पलट कर अखबार डाल रहा है। अंग्रेजी का भी एक नजर आने लगा। हाॅकर पर हम डंडा ले चढ़ दौड़े कि हमें तू क्या धन्नासेठ समझ रहा है जो तीन तीन अखबार खरीदें पर पता चला श्रीमती जी का हुक्म है। सोचा शायद ज्ञान पूरा बढ़ाया जा रहा है। धीरे धीरे आये दिन घर में ंतरह तरह की पत्रिकाएं दिखाई पड़ने लगीं। हमने भी सोचा चलो पड़ोसियों की आयं-बांय से छुट्टी और कुछ पढ़ने लिखने में भी मन लगेगा।



बी॰ए॰, में इंगलिश में कमजोर थी शायद अब अंग्रेजी सुधारने की इच्छा हो आई लगती है ? जो अंग्रेजी अखबार  मंगाया जा रहा है। चलो बड़ा अच्छा है कहती थीं घर में पड़े पड़े मन नहीं लगता है, कुछ पढ़ने लिखने में मन लगेगा। पत्रिकाओं में तरह तरह के पकवान आते हैं नये नये पकवान खाने को मिलेंगे। नयी नयी डिजाइन के तकिए के गिलाफ आदि काढ़े जायेगे। बस कुछ रुपये महिने खर्चा ही तो बढ़ेगा। पर हमें क्या मालूम था कि हम यह कुछ रुपये का नहीं वरन् सात आठ सौ रुपये महीने का खर्चा अपने सर पर बांध रहे हैं।
हम तो आफिस में लाटरी टिकिट खरीदने वालों को जुआरी और सरकार को जुआ खेलने के लिये प्रोत्साहन देने वाली कह रहे हैं। अपने साथियों को एक लम्बा लेक्चर पिला रहे हैं कि इस प्रकार सरकार लाटरी निकाल कर जनता को लूट रही है। जनता को बिना मेहनत किये बिना हाथ पैर हिलाए, रुपया पाने का तरीका सिखा रही है। जनता को जाहिल और निकम्मा बना रही है। और घर जाकर देखते है कि श्रीमती के पर्स में तरह तरह की रंग बिरंगी टिकटें रखी हैं, जिन पर लिखा है महाराष्ट्र सरकार लाटरी प्रथम इनाम ढाई लाख, उत्तर प्रदेश लाटरी प्रथम इनाम पांच लाख रुपये।


इनाम निकलने के काफी दिन पहले तक उनके चेहरे पर रौनक छाई रहती और कहती देख लेना इस बात तो इनाम मेरे नाम ही निकलना है। मैं इस बार यू॰पी॰ का टिकट खरीद कर जैसे ही दुकान से बाहर आई थीं सामने से मुर्दा आता दिखा था। और आज मेरी बायी आंख फड़क रही है, कल यू॰पी॰ का ड्रा होने वाला है। अब की बार तो मैदान मार ही लिया समझो।
अखबार के मारे हैं हम भाग 3 

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