Sunday 10 January 2016

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन

टेलीविजन के कार्टून नेटवर्क से चिपके बच्चे या प्ले स्टेषन इंटरनेट या कम्प्यूटर पर रेस बाइक पर मोटर पर और भी जाने कितने कम्प्यूटर गेम्स बच्चों की दुनिया में बस कुर्सी से चिपके सामने आँखें गड़ाये बस यही दुनिया है इसके अलावा उन्हें इधर-उधर देखने की फुरसत है आवश्यकता कैसी काल्पनिक भयानक चरित्रों के बीच बोलता बचपन किताबो दादी नानी की कहानियां मे तमाशे उन सब से अलग आना बचपन याद करती हूं ऐसा लगता है कि हमने जो बचपन जिया बहुत बढि़या जिया। 


ऐसा बचपन माँ दादी ने जिया आज के बच्चों ने क्योंकि दादी आठ साल की थी जब शादी हो गई थी। तब से चार हाथ की धोती पहनी। पहले लड़कियों के लिये लड़को के लिये अलग से साड़ी धोतियां बनती थी। 


फ्राक शरारा गरारा सलवार दुप्पट्टा यह सब उन्होने नहीं पहना मां की शादी नौ साल की उम्र में हो गई मां बोलती थी कि विवाह होकर ओड़े साड़ी लहंगा उनसे उसका नाड़ा नहीं बंधा तो दादी ने नाड़ा बांधा। विवाह हुआ मोरे पंडित जी का याद है प्यारे लाल गदुभी रंग बैठते तो तोंद बाहर निकल आती थी जैसे मटका रखा हो ऊपर से गरमियों में हाथ की बनी बंडी को ऊपर चढ़ा लेते थे। तो केवल पेट दिखता था जिसके लिये हम गाते फिरते थे

मास्टर जी का पेट जैसे इंडिया का गेट।’’

 मथुरा में धोती के साथ बंडी पहनी जाती है वह एक तरह से छोटा कुर्ता होता है सामने से दोहरा बना होता है और इधर-उधर डोरी से बांधा जाता है। कृष्ण जी की पोशाक उसी प्रकार की बनती है। वहां चतुर्वेदी समाज या ब्राहम्मण वर्ग इसी प्रकार की बंडी पहनता है। सदिर्यो में प्राय रूई से बनी इसी प्रकार की फतुही पहनी जाती है। पंडित जी के सिर पर गिने चुने बाल थे अधिकतर पंखे की हवा में एक बाल लहराता रहता 


पंडित जी जब आंघते थे तब उनका सिर देखने पर लुढ़कता हम लांग उस बाल के लहराने को देखते और उछल कूद पर लगाम सीखो घर गृहस्यों के काम दस साल की लड़की घी गड़ी हो जाती थी उसे तब तक तो रसोई का सब काम जाना चाहिये छोटे भाई बहन संभालना तो ही जाता था पर अपना बचपन याद करती हूँ। तो जैसे जीवन के रजा पटल पर सुनहरे अक्षर अंकित हों।


       कोई चिंता फिक्र डर घर पर पंडित जी पढ़ाने आते इसलिये स्कूल की फिक्र नहीं एक ये मोटे पंडित जी गये। पांचो भाई-बहन बैठ जाते खिड़की के दरबाजे के पास पंडित जी बैठते उनके पीछे तकिया लगा रहता दरी पर हम बैठते घोट-घोट खडिया बुतखे और कलम घर चमघोई तख्ती पर मोटे पंडित जी गये गणित सिखाते और जब सिर गिरा कहते एक दूसरे को टहोकते कभी-कभी मुँह से जोर से निकल जाता तो चैंक कर उठ बैठते।


       पतले पंडित जी का आंधने का तरीका फरका था वे आलथी पालथी मारकर बैठते और दोनो हाथ इधर जमीन पर रख लेते पोशाक उनकी भी वही पर रंग साफ या पतला चेहरा नाक तोते जैसी थी जब बो ओंघते तब उनकी नाक बूंद बना लेती मेरा मन कच्चा है देखती भी जाती फिर उलटी करने भागती उए से सब हंसते दोनों ही पंडित बुजुर्ग थे मां उनसे हटका करती दरवाजे के किनारे खड़े होकर कहती पंडित जी जरा ध्यान रखिये कमाल लाया करिये।



       पंडित जी हा-हा कर उठते ही बहू जरा जुकाम हो रहा है बहू और जाग्रत होकर ढेढ जाते। पर पता नहीं हम छः सात वर्ष के ही होंगे तब से ही कुछ-कुछ स्मृतियाँ अपनी इबरत लिख छोटी है तब ही जाने कितनी कहानियों की किताबें पढ़ना शुरू कर दिया था। पिता को शोक था 


पुस्तकों का आज भी उस का नाम याद है। साईकिल पर दो थैलों मे किताबे प्रतिदिन लाता नाज विद्या सागर एक किताब बड़ों की आस एक किताब बच्चो की दूसरे दिन किताब वापस हम इंतजार करते सुवह ग्यारह बजे आने का समय था तो ग्यारह बजे से बैठ जाते कि पहले हम सहेंगे चंदा मामा का गुनगुन बालसखा, बालक, गुडि़या, मनमोहन चुनमुन और भी जाने कितने नाम थे


घर में प्रैस था जहां सभी धार्मिक पुस्तकें छपती पर साथ ही बच्चों के लिये भी जाने कितने किताबे छपती थी तिलस्मी दरवाजा रेशमी रूमाल जादुई प्याला जादुई मलहम जरा बड़ो हुए तो सारी टार्जन सिरीज ढलैक सिरीज सवीन्द्र नाथ टैगोर सिरी बांके चंद शराचंद्र पढ लिये थे आज के बच्चे पुस्तकों का बेग ले इतना लिये रहते है परंतु ठीक से 10 पृष्ठ की किताब भी नहीं पढ़ते।

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन2

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